दाग़-ए-ग़म दिल से किसी तरह मिटाया न गया
मैं ने चाहा भी मगर तुम को भुलाया न गया
उम्र भर यूँ तो ज़माने के मसाइब झेले
तेरी नज़रों का मगर बार उठाया न गया
रूठने वालों से इतना कोई जा कर पूछे
ख़ुद ही रूठे रहे या हम से मनाया न गया
फूल चुनना भी अबस सैर-ए-बहाराँ भी फ़ुज़ूल
दिल का दामन ही जो काँटों से बचाया न गया
उस ने इस तरह मोहब्बत की निगाहें डालीं
हम से दुनिया का कोई राज़ छुपाया न गया
थी हक़ीक़त में वही मंज़िल-ए-मक़्सद 'जज़्बी'
जिस जगह तुझ से क़दम आगे बढ़ाया न गया
ग़ज़ल
दाग़-ए-ग़म दिल से किसी तरह मिटाया न गया
मुईन अहसन जज़्बी