दाग़-ए-दिल अपना किसी तरह दिखाए न बने
और चाहूँ जो छुपाना तो छुपाए न बने
दामन-ए-दिल में वो जब चाहें लगा दें इक आग
हम अगर चाहें बुझाना तो बुझाए न बने
तुम को मंज़ूर नहीं अपने तग़ाफ़ुल से गुरेज़
हम पे बन आई है ऐसी कि बनाए न बने
उफ़ रे ये तीरा-नसीबी ये अँधेरे का फ़रोग़
दीप आँखों का जलाऊँ तो जलाए न बने
हाए ये फ़ितरत-ए-हुस्न उफ़ वो मिज़ाज-ए-नाज़ुक
नाज़ उठाना भी जो चाहूँ तो उठाए न बने
सोच के दीजिए दीवाने को दामन की हवा
ये भी मुमकिन है कि फिर होश में आए न बने
नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे 'माहिर' को मगर
दिल पे गुज़री है कुछ ऐसी कि सुनाए न बने
ग़ज़ल
दाग़-ए-दिल अपना किसी तरह दिखाए न बने
माहिर आरवी