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दाग़-ए-दिल अपना किसी तरह दिखाए न बने | शाही शायरी
dagh-e-dil apna kisi tarah dikhae na bane

ग़ज़ल

दाग़-ए-दिल अपना किसी तरह दिखाए न बने

माहिर आरवी

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दाग़-ए-दिल अपना किसी तरह दिखाए न बने
और चाहूँ जो छुपाना तो छुपाए न बने

दामन-ए-दिल में वो जब चाहें लगा दें इक आग
हम अगर चाहें बुझाना तो बुझाए न बने

तुम को मंज़ूर नहीं अपने तग़ाफ़ुल से गुरेज़
हम पे बन आई है ऐसी कि बनाए न बने

उफ़ रे ये तीरा-नसीबी ये अँधेरे का फ़रोग़
दीप आँखों का जलाऊँ तो जलाए न बने

हाए ये फ़ितरत-ए-हुस्न उफ़ वो मिज़ाज-ए-नाज़ुक
नाज़ उठाना भी जो चाहूँ तो उठाए न बने

सोच के दीजिए दीवाने को दामन की हवा
ये भी मुमकिन है कि फिर होश में आए न बने

नाज़ है ताक़त-ए-गुफ़्तार पे 'माहिर' को मगर
दिल पे गुज़री है कुछ ऐसी कि सुनाए न बने