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चुरा न आँख को साक़ी कि बादा-नोश हूँ मैं | शाही शायरी
chura na aankh ko saqi ki baada-nosh hun main

ग़ज़ल

चुरा न आँख को साक़ी कि बादा-नोश हूँ मैं

पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़

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चुरा न आँख को साक़ी कि बादा-नोश हूँ मैं
अभी तो फ़ैसला होता है एक साग़र पर

मरीज़-ए-इश्क़ की हालत कभी न सँभलेगी
मुझे तो छोड़ दे ऐ चारा-गर मुक़द्दर पर

हमारे नाले भी थक थक के अब तो बैठ रहे
गए वो दिन कि उठाते थे आसमाँ सर पर

हमारे मय-कदा को छोड़ कर न जा ज़ाहिद
मिलेगा क़तरा न कम-बख़्त हौज़-ए-कौसर पर

गिला न हम ने किया 'शौक़' उस सितमगर से
बलाएँ सब वो उठाईं जो आ पड़ीं सर पर