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चुपके से दिमाग़ में दर आए | शाही शायरी
chupke se dimagh mein dar aae

ग़ज़ल

चुपके से दिमाग़ में दर आए

कालीदास गुप्ता रज़ा

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चुपके से दिमाग़ में दर आए
यादों के सफ़ीर बिन बुलाए

कब तक दुख का धुआँ धुआँ सा
कब तक ग़म के मुहीब साए

बहरूपियो रूप की दुहाई
तस्कीन-ए-नज़र को कोई आए

बैठे हैं क़दम क़दम पे नक़्क़ाद
ताईद की मिशअलें जलाए

दामान-ए-ख़िरद ने ये हवा दी
जितने थे चराग़ सब बुझाए

आँखों से निकल गया अंधेरा
तारे से पलक पे जगमगाए

गुलशन गुलशन खँगाल डाला
ख़ुश्बू ख़ुश्बू पुकार आए

इस कोह-ए-ख़िरद को मैं करूँ क्या
दीवाने से कब उठाया जाए

हूँ बू-ए-गुल ख़िज़ाँ-गज़ीदा
कोई जिसे ढूँडे भी न पाए

पत-झड़ को रहनुमा बना कर
कलियों ने अजीब गुल खिलाए

दरबार-ए-सुख़न-वराँ में तन्हा
बैठा है रज़ा भी सर झुकाए