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छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा | शाही शायरी
chhu ke guzra mujhe zamana sa

ग़ज़ल

छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा

मुस्तफ़ा शहाब

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छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा
पैरहन हो गया पुराना सा

इक पुराना सा रब्त है उस से
इक तअल्लुक़ है ग़ाएबाना सा

एक क़तरा सदफ़ में क्या उतरा
खुल गया एक कार-ख़ाना सा

दिल की टूटी फ़सील में अब भी
एक दर वा है आरिफ़ाना सा

अब भी उस की गली में मुड़ता है
दिल से इक रास्ता पुराना सा

थी नज़र उस पे दुश्मनों जैसी
इश्क़ जिस से था वालिहाना सा

ख़ामुशी घर की डर ही है 'शहाब'
दूर इक शोर है सुहाना सा