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छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर | शाही शायरी
chhu bhi to nahin sakte hum mauj-e-saba ban kar

ग़ज़ल

छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर

फ़ुज़ैल जाफ़री

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छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर
ललचाई निगाहों से तकते हैं गुलाबों को

सौ दुख हमें देती है हाँ तिश्ना-लबी लेकिन
पानी तो नहीं समझे हम लोग सराबों को

अफ़्सानों की दुनिया में सब झूट नहीं होता
दिल और भी उलझेगा पढ़िए न किताबों को

सच है दिल-ए-दीवाना ख़्वाबों से बहलता है
हर रात मगर कैसे बहलाइए ख़्वाबों को