छुट के ये क़ैद-ए-मकाँ से ला-मकाँ तक जाएगी
बहर-ए-दिल की मौज बहर-ए-बे-कराँ तक जाएगी
इक ज़रा महमेज़ कर फिर देख इस के बाल-ओ-पर
फ़िक्र की परवाज़ बाम-ए-आसमाँ तक जाएगी
चुपके चुपके ही भड़क उठेंगे जब अंदोह-ए-ग़म
चुपके चुपके आँच भी क़ल्ब-ए-तपाँ तक जाएगी
तुम जलाओ तो सही रासिख़ यक़ीं की मिशअलें
जुरअत-ए-दिल वादी-ए-अज़्म-ए-जवाँ तक जाएगी
पूछता फिरता हूँ मैं हर राह से दीवाना-वार
ज़ीस्त आई है कहाँ से और कहाँ तक जाएगी
मैं ख़ुलूस-ए-दिल से 'हादी' जब पुकारूँगा उसे
हर सदा-ए-नातवाँ उस के मकाँ तक जाएगी
ग़ज़ल
छुट के ये क़ैद-ए-मकाँ से ला-मकाँ तक जाएगी
मनोहर लाल हादी