छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर
जो हो सके तो कहीं दिल लगा मोहब्बत कर
अदा ये किस कटे पत्ते से तू ने सीखी है
सितम हवा का हो और शाख़ से शिकायत कर
न हो मुख़िल मिरे अंदर की एक दुनिया में
बड़ी ख़ुशी से बर-ओ-बहर पर हुकूमत कर
वो अपने आप न समझेगा तेरे दिल में है क्या
ख़लिश को हर्फ़ बना हर्फ़ को हिकायत कर
मिरे बनाए हुए बुत में रूह फूँक दे अब
न एक उम्र की मेहनत मिरी अकारत कर
कहाँ से आ गया तू बज़्म-ए-कम-यक़ीनाँ में
यहाँ न होगा कोई ख़ुश हज़ार ख़िदमत कर
कुछ और चीज़ें हैं दुनिया को जो बदलती हैं
कि अपने दर्द को अपने लिए इबारत कर
नहीं अजब इसी पल का हो मुंतज़िर वो भी
कि छू ले उस के बदन को ज़रा सी हिम्मत कर
ख़ुलूस तेरा भी अब ज़द में आ गया 'बानी'
यहाँ ये रोज़ के क़िस्से हैं जी बुरा मत कर
ग़ज़ल
छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर
राजेन्द्र मनचंदा बानी