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छुपाए दिल में हम अक्सर तिरी तलब भी चले | शाही शायरी
chhupae dil mein hum akasr teri talab bhi chale

ग़ज़ल

छुपाए दिल में हम अक्सर तिरी तलब भी चले

आरिफ़ अब्दुल मतीन

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छुपाए दिल में हम अक्सर तिरी तलब भी चले
कभी कभी तिरे हमराह बे-सबब भी चले

नुमूद-ए-गुल के करिश्मे सदा जिलौ में रहे
नसीम बन के चले हम चमन में जब भी चले

जलाओ ख़ून-ए-शहीदाँ से इर्तिक़ा के चराग़
ये रस्म चलती रही है ये रस्म अब भी चले

सुना है जादा-नवर्दान-ए-सुब्ह के हमराह
ब-फ़ैज़-ए-वक़्त कई रह-रवान-ए-शब भी चले

है शोर-ए-शबनम-ए-आसूदगी के दोश-ब-दोश
गुल आज ले के कहीं शोला-ए-ग़ज़ब भी चले

किसी का हुक्म-ए-ज़बाँ-बंदी-ए-जुनूँ भी चला
किसी के क़िस्से सुख़न बन के ज़ेर-ए-लब भी चले

हमीं ने साग़र-ए-ग़म मुंतख़ब किया 'आरिफ़'
वगर्ना बज़्म में कुछ साग़र-ए-तरब भी चले