छुपा है कर्ब-ए-मुसलसल हवा के लहजे में
कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में
मैं उस की क़द्र करूँगा जो मेरे ऐबों को
मिरे ही मुँह पे कहे आश्ना के लहजे में
ज़माना आज भी क़ासिर है ये समझने से
सफ़र की बात हुई क्यूँ हवा के लहजे में
हमारे दर्द का अंदाज़ा उस को क्या होगा
कि अश्क होते नहीं हैं वफ़ा के लहजे में
है ए'तिराफ़ कि अक्सर उलझ पड़े जिस से
वो मेहरबान हुआ है दुआ के लहजे में
मिरी नज़र में रहा है जो मोहतरम 'अंजुम'
वही है मुझ से मुख़ातब सज़ा के लहजे में
ग़ज़ल
छुपा है कर्ब-ए-मुसलसल हवा के लहजे में
ग़यास अंजुम