छुप-छुप के तू 'शाद' उस से मुलाक़ात करे है
नादान वो इक इक से तिरी बात करे है
कुछ मेरे बिगड़ने से चले जाते थे अतवार
अच्छा है जो तू तर्क-ए-इनायात करे है
तू मुझ से जो करता है वो रहती है मुझी तक
जो मैं करूँ इक इक से तो वो बात करे है
रंजिश से तो नफ़रत की ख़लीज और बढ़ेगी
आ प्यार करें प्यार करामात करे है
जो अब्र भी उठता है किसी वादी-ए-ग़म से
वो किश्त-ए-मसर्रत ही पे बरसात करे है
ढीटाई तो इस दौर में पनपे फले-फूले
रो-रो के शराफ़त बसर औक़ात करे है
देता भी जो है 'शाद' सिला कोई वफ़ा का
तो इस तरह जैसे कोई ख़ैरात करे है
ग़ज़ल
छुप-छुप के तू 'शाद' उस से मुलाक़ात करे है
शाद बिलगवी