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छोड़िए बाक़ी भी क्या रक्खा है उन के क़हर में | शाही शायरी
chhoDiye baqi bhi kya rakkha hai un ke qahr mein

ग़ज़ल

छोड़िए बाक़ी भी क्या रक्खा है उन के क़हर में

शुजा ख़ावर

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छोड़िए बाक़ी भी क्या रक्खा है उन के क़हर में
जान दरवेशों को प्यारी है हमारे शहर में

देखिए क्या हश्र होता है हमारा दहर में
शहरयारी की तमन्ना और तेरे शहर में

देखने वाले को सारा ही समुंदर चाहिए
सोचने वाला समुंदर सोच ले इक लहर में

देखिए तासीर ख़ाली ज़हर में होती नहीं
ज़िंदगी सूखी मिला कर खाइएगा ज़हर में

उन से यूँ तश्बीह देता हूँ कि वो भी दूर हैं
वर्ना क्या मिलता है तुझ में और माह ओ महर में

तंगी-ए-हैअत से टकराता हुआ जोश-ए-मवाद
शायरी का लुत्फ़ आ जाता है छोटी बहर में