EN اردو
छोड़ा न मुझे दिल ने मिरी जान कहीं का | शाही शायरी
chhoDa na mujhe dil ne meri jaan kahin ka

ग़ज़ल

छोड़ा न मुझे दिल ने मिरी जान कहीं का

इफ़्तिख़ार राग़िब

;

छोड़ा न मुझे दिल ने मिरी जान कहीं का
दिल है कि नहीं मानता नादान कहीं का

जाएँ तो कहाँ जाएँ इसी सोच में गुम हैं
ख़्वाहिश है कहीं की तो है अरमान कहीं का

हम हिज्र के मारों को कहीं चैन कहाँ है
मौसम नहीं जचता हमें इक आन कहीं का

इस शोख़ी-ए-गुफ़्तार पर आता है बहुत प्यार
जब प्यार से कहते हैं वो शैतान कहीं का

ये वस्ल की रुत है कि जुदाई का है मौसम
ये गुलशन-ए-दिल है कि बयाबान कहीं का

कर दे न इसे ग़र्क़ कोई नद्दी कहीं की
ख़ुद को जो समझ बैठा है भगवान कहीं का

इक हर्फ़ भी तहरीफ़-ज़दा हो तो दिखाए
ले आए उठा कर कोई क़ुरआन कहीं का

महबूब नगर हो कि ग़ज़ल गानो हो 'राग़िब'
दस्तूर-ए-मोहब्बत नहीं आसान कहीं का