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छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा | शाही शायरी
chhoD mawa-e-zaqan zulf-e-pareshan mein phansa

ग़ज़ल

छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा

क़ाएम चाँदपुरी

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छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा
मिस्ल-ए-यूसुफ़ मैं निकल चाह से ज़िंदाँ में फँसा

सैल-ए-अश्क आज रुकी आँख से गिरते ही मगर
फिर कई लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-गिर्यां में फँसा

कुछ भी वक़्फ़ा हो तो गुलशन से ले आएँ सय्याद
रह गया है दिल-ए-ग़म-कश गुल ओ रैहाँ में फँसा

खींच दामन रखें हम यार को किस तरह कि हाथ
एक तो दिल पे है और एक गरेबाँ में फँसा

ऐ कि चाहे है तू दीवान को 'क़ाएम' के तो देख
कहीं होगा किसी ख़ु़म्मार की दुक्काँ में फँसा