छोड़ कर वो हम को तन्हा किस जहाँ में जा बसा
लाख उस को मिलना चाहा पर रहा वो ना-रसा
सच ही कहता था हमें वो छोड़ जब मैं जाऊँगा
मुझ को ढूँडा तुम करोगे हर गली में जा-ब-जा
तब हमें दिखलावा लगता था वो माथा चूमना
आज जिस के वास्ते है दिल में मेरे इश्तिहा
छोड़ कर जब वो गया तब सारे दुश्मन हो गए
फिर हमें रुस्वा किया था मिल के सब ने नारवा
तेरे होते तो न हिम्मत थी किसी की कुछ कहे
बा'द तेरे सब के लहजे हो गए थे नारवा
किस तरह टूटी क़यामत हम से मत ये पूछना
अब नहीं है सब्र बाक़ी दर्द की है इंतिहा
ऐ ख़ुदा शिकवा नहीं 'साइल' को तेरी ज़ात से
माँ मिरी को बख़्श दे तू तुझ से है बस ये दुआ
ग़ज़ल
छोड़ कर वो हम को तन्हा किस जहाँ में जा बसा
शहज़ाद हुसैन साइल