छोड़ कर अपनी ज़मीं अपना समुंदर साईं
मैं बहुत दूर से आया हूँ तिरे घर साईं
कोई बेरी भी नहीं काँच का बर्तन भी नहीं
फिर मिरे सहन में क्यूँ आते हैं पत्थर साईं
बर्फ़ की गोद में पलते हुए ख़ामोश चिनार
ग़ैर मौसम में सुलग उठते हैं अक्सर साईं
फूल बन जाते हैं हाथों में मिरे बच्चों के
मेरी टूटी हुई दीवार के पत्थर साईं
हो गईं शहर की सड़कें तो कुशादा भी मगर
अब कहाँ जाएँ ये फ़ुटपाथ के बिस्तर साईं
मैं तो पोरस की तरह जंग लड़ा और हारा
तू बिना जंग ही बन बैठा सिकंदर साईं
ले के आया है अज़ल ही से 'नज़र-सिद्दीकी़'
टूटे कासे की तरह अपना मुक़द्दर साईं
ग़ज़ल
छोड़ कर अपनी ज़मीं अपना समुंदर साईं
नज़र सिद्दीक़ी