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छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल | शाही शायरी
chheDte hain gudgudate hain phir arman aaj-kal

ग़ज़ल

छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल

रियाज़ ख़ैराबादी

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छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल
झूटे सच्चे कोई कर ले अहद-ओ-पैमाँ आज-कल

घोंट दे मेरा गला कुछ ज़ोर अगर उस का चले
हाथ से मेरे ही तंग इतना गरेबाँ आज-कल

चढ़ गए दीवार-ए-ज़िंदाँ पर कभी उतरे कभी
हम बने हैं साया-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ आज-कल

रोज़ रातों को सुना करता हूँ ये आवाज़-ए-क़ैस
फाड़े खाता है मुझे ख़ाली बयाबाँ आज-कल

ऐ उरूस-ए-तेग़ कुछ तुझ को हया भी चाहिए
क्यूँ गले पड़ती है तू हो हो के उर्यां आज-कल

संग-दिल काफ़िर का शायद टूटते देखा है कुफ़्र
टूट कर मिलते हैं मुझ से इस के दरबाँ आज-कल

आ गया ऐसा ही अब काफ़िर ज़माना क्या करें
दाबे फिरते हैं बग़ल में लोग ईमाँ आज-कल

रात-दिन है मेरी तुर्बत पर हसीनों का हुजूम
देखने की चीज़ है गोर-ए-ग़रीबाँ आज-कल

दिन को रोज़ा ईद शब को है अजब शग़्ल-ए-'रियाज़'
रात-भर पीता है ये मर्द-ए-मुसलमाँ आज-कल