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छेड़ी भी जो रस्म-ओ-राह की बात | शाही शायरी
chheDi bhi jo rasm-o-rah ki baat

ग़ज़ल

छेड़ी भी जो रस्म-ओ-राह की बात

ज़िया जालंधरी

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छेड़ी भी जो रस्म-ओ-राह की बात
वो सुन न सके निगाह की बात

हर-लहज़ा बदल रहे हैं हालात
मुझ से न करो निबाह की बात

कहते हैं तिरी मिज़ा के तारे
ख़ुद मेरी शब-ए-सियाह की बात

अब है वो निगह न वो तबस्सुम
कुछ और थी गाह गाह की बात

क्या याद न आएगा ये अंजाम
किस दिल से करेंगे चाह की बात