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छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ | शाही शायरी
chheD manzur hai kya aashiq-e-dil-gir ke sath

ग़ज़ल

छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ

निज़ाम रामपुरी

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छेड़ मंज़ूर है क्या आशिक़-ए-दिल-गीर के साथ
ख़त भी आया कभी तो ग़ैर की तहरीर के साथ

गो कि इक़रार ग़लत था मगर इक थी तस्कीन
अब तो इंकार है कुछ और ही तक़रीर के साथ

पेच क़िस्मत का हो तो क्या करे इस में कोई
दिल को वाबस्तगी है ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के साथ

वो भी कहते हुए कुछ दूर तक आए पीछे
हम जो उस बज़्म से निकले भी तो तौक़ीर के साथ

ये भी इक वस्ल की सूरत थी मगर रश्क-ए-नसीब
उस की तस्वीर कभी ग़ैर की तस्वीर के साथ

वादा-ए-सुब्ह पे अब किस को यक़ीं हो क़ासिद
आज तो जान गई नाला-ए-शब-गीर के साथ

कहो रंजिश का सबब कुछ नहीं मेरी ही सुनो
उज़्र तो चाहिए करना मुझे तक़्सीर के साथ

आप देते हैं अज़िय्यत ही शिकायत की एवज़
कुछ ज़बाँ से भी तो फ़रमाइए ताज़ीर के साथ

देखिए मिल ही गया आप से वो शोख़ 'निज़ाम'
काम जो कुछ करे इंसान सौ तदबीर के साथ