EN اردو
छतों पे आग रही बाम-ओ-दर पे धूप रही | शाही शायरी
chhaton pe aag rahi baam-o-dar pe dhup rahi

ग़ज़ल

छतों पे आग रही बाम-ओ-दर पे धूप रही

इक़बाल उमर

;

छतों पे आग रही बाम-ओ-दर पे धूप रही
सहर से शाम तलक बहर-ओ-बर पे धूप रही

बहुत दिनों से जो बादल इधर नहीं आए
दरख़्त सूखे रहे रहगुज़र पे धूप रही

कुछ ऐसे वक़्त पे निकले थे अपने घर से हम
जहाँ जहाँ भी गए अपने सर पे धूप रही

ग़ुरूब हो गया सूरज मगर फ़ज़ाओं में
वही तपिश है कि जैसे नगर पे धूप रही

रविश रविश पे रहा आफ़्ताब का साया
जहान-ए-ग़ुंचा-ओ-बर्ग-ओ-समर पे धूप रही

अरक़ अरक़ है जबीं पैरहन पसीना है
बशर ही जाने कि कैसी बशर पे धूप रही

जहान-ए-कर्ब-ओ-बला हम को याद आया है
कुछ ऐसी अब के हमारे नगर पे धूप रही

रवाँ-दवाँ हमें फिरना था दश्त-ए-ग़ुर्बत में
कभी जो घर में रहे हैं तो घर पे धूप रही

उसी परिंदे की सूरत हमें भी जीना था
जो दिन को उड़ता रहा बाल-ओ-पर पे धूप रही

तमाम दिन मुझे सूरज के साथ चलना था
मिरे सबब से मिरे हम-सफ़र पे धूप रही

यही तो सोच के 'इक़बाल' को नदामत है
शजर के साए में हम और शजर पे धूप रही