छलकती आए कि अपनी तलब से भी कम आए
हमारे सामने साक़ी ब-साग़र-ए-जम आए
फ़रोग़-ए-आतिश-ए-गुल ही चमन की ठंडक है
सुलगती चीख़ती रातों को भी तो शबनम आए
बस एक हम ही लिए जाएँ दरस-ए-इज्ज़-ओ-नियाज़
कभी तो अकड़ी हुई गर्दनों में भी ख़म आए
जो कारवाँ में रहे मीर-ए-कारवाँ के क़रीब
न जाने क्यूँ वो पलट आए और बरहम आए
निगार-ए-सुब्ह से पूछेंगे शब गुज़रने दो
की ज़ुल्मतों से उलझ कर वो आई या हम आए
अजीब बात है कीचड़ में लहलहाए कँवल
फटे पुराने से जिस्मों पे सज के रेशम आए
मसीह कौन बने सारे हाथ आलूदा
लहूलुहान है धरती कहाँ से मरहम आए
ग़ज़ल
छलकती आए कि अपनी तलब से भी कम आए
इब्न-ए-सफ़ी