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छाँव अफ़्सोस दाइमी न रही | शाही शायरी
chhanw afsos daimi na rahi

ग़ज़ल

छाँव अफ़्सोस दाइमी न रही

इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

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छाँव अफ़्सोस दाइमी न रही
धूप का क्या रही रही न रही

आसरा छिन गया है जीने का
आस थी जो रही-सही न रही

हो गया ख़्वाब फूल सा चेहरा
शाख़-ए-दिल भी हरी-भरी न रही

बह गए आँसुओं के दरिया में
आप की बात याद ही न रही

इक उदासी थी रात थी हम थे
और फिर हाजत-ए-ख़ुशी न रही

मशवरा जस का तस रहा लेकिन
मश्वरों की कभी कमी न रही

वाक़िआ जो हुआ हुआ लेकिन
दास्ताँ आप से जुड़ी न रही

उन इलाक़ों में क्या रहा साहिब
जिन इलाक़ों में शायरी न रही

इक तमन्ना थी तेरी महफ़िल में
क्यूँ रहें हम अगर वही न रही