चेहरों पे लिखा है कोई अपना नहीं मिलता
क्या शहर है इक शख़्स भी झूटा नहीं मिलता
चाहत की क़बा में तो बदन और जलेंगे
सहरा के शजर से कोई दरिया नहीं मिलता
मैं जान गया हूँ तिरी ख़ुशबू की रक़ाबत
तू मुझ से मिले तो ग़म-ए-दुनिया नहीं मिलता
ज़ुल्फ़-ओ-लब-ओ-रुख़्सार के आज़र तो बहुत हैं
टूटे हुए ख़्वाबों का मसीहा नहीं मिलता
मैं अपने ख़यालों की थकन कैसे उतारूँ
रंगों में कोई रंग भी गहरा नहीं मिलता
डूबे हुए सूरज को समुंदर से निकालो
साहिल को जलाने से उजाला नहीं मिलता
ग़ज़ल
चेहरों पे लिखा है कोई अपना नहीं मिलता
जाज़िब क़ुरैशी