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चेहरों को बे-नक़ाब समझने लगा था मैं | शाही शायरी
chehron ko be-naqab samajhne laga tha main

ग़ज़ल

चेहरों को बे-नक़ाब समझने लगा था मैं

असग़र मेहदी होश

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चेहरों को बे-नक़ाब समझने लगा था मैं
सब को खुली किताब समझने लगा था मैं

जलना ही चाहिए था मुझे और जल गया
अँगारों को गुलाब समझने लगा था मैं

ये क्या हुआ कि नींद ही आँखों से उड़ गई
कुछ कुछ ज़बान-ए-ख़्वाब समझने लगा था मैं

अपनी ही रौशनी से नज़र खा गई फ़रेब
ज़र्रों को आफ़्ताब समझने लगा था मैं

फिर क्यूँ सज़ा-ए-तिश्ना-लबी दी गई मुझे
पानी को भी शराब समझने लगा था मैं

बुनियाद अपने घर की फ़ज़ाओं में डाल दी
बस्ती को ज़ेर-ए-आब समझने लगा था मैं

मुझ से ही हो गई है सवाल-ए-वफ़ा की भूल
दुनिया को ला-जवाब समझने लगा था मैं