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चेहरे पे नूर-ए-सुब्ह सियह गेसुओं में रात | शाही शायरी
chehre pe nur-e-subh siyah gesuon mein raat

ग़ज़ल

चेहरे पे नूर-ए-सुब्ह सियह गेसुओं में रात

दाएम ग़व्वासी

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चेहरे पे नूर-ए-सुब्ह सियह गेसुओं में रात
उतरी थी इक परी लिए अपने परों में रात

दिन तो शिकम की आग बुझाने में जाए है
शुक्र-ए-ख़ुदा कि कटती है दानिशवरों में रात

थी वज्ह-ए-ख़्वाब कल यही तस्कीन-ए-क़ल्ब भी
हम को तो अब डराने लगी ज़लज़लों में रात

हर साहब-ए-कमाल है फ़न के उरूज पर
क़िबला-नुमा रही है सभी हादसों में रात

आँखों में उन का हुस्न था सोता मैं किस तरह
आई थी गरचे घर मिरे कितने दिनों में रात

आवारगी की छाप वो आई थी छोड़ने
शर्मिंदा हो के लौट गई दिल-जलों में रात

कुछ देर हाव-हू का था मंज़र शबाब पर
दिन की थकी थी सो ही गई मंदिरों में रात

हम थे कि ग़र्क़-ए-जाम रहे मय-कशों के बीच
हम को तलाश करती रही आबिदों में रात

जुगनू चमक रहे थे उजाले में इश्क़ के
'दाएम' क़याम करती कहाँ बुज़दिलों में रात