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चेहरे पे मोहर-ए-ग़म है ख़त-ओ-ख़ाल की तरह | शाही शायरी
chehre pe mohr-e-gham hai KHat-o-Khaal ki tarah

ग़ज़ल

चेहरे पे मोहर-ए-ग़म है ख़त-ओ-ख़ाल की तरह

हसन नईम

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चेहरे पे मोहर-ए-ग़म है ख़त-ओ-ख़ाल की तरह
माज़ी भी दम के साथ है अब हाल की तरह

पत्ते थे ख़ाक-बोस तो शाख़ें थीं सर-निगूँ
कुंज-ए-चमन भी था दिल-ए-पामाल की तरह

अपने हुरूफ़-ए-शौक़ जो शो'ला-ब-जाँ थे कल
ठंडे पड़े हैं आज वो अक़वाल की तरह

तहज़ीब है कि आए तो हँस बोल कर गए
चुपके से जाइए न मह-ओ-साल की तरह

सब के सितारे देख के दिल ने सलाह दी
गर्दिश में क्यूँ पड़ो किसी रुमाल की तरह

आँचल में नींद बाँध के इस रात आ भी जा
ये दिन लगा है जान को जंजाल की तरह

रखिए बचा के अपना दफ़ीना हसन-'नईम'
ग़म को लुटाइए न ज़र-ओ-माल की तरह