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चेहरा-ए-ज़िंदगी निखर आया | शाही शायरी
chehra-e-zindagi nikhar aaya

ग़ज़ल

चेहरा-ए-ज़िंदगी निखर आया

महेश चंद्र नक़्श

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चेहरा-ए-ज़िंदगी निखर आया
जब कभी हम ने जाम छलकाया

शाम-ए-हिज्राँ भी इक क़यामत थी
आप आए तो मुझ को याद आया

रंग फीका पड़ा वफ़ाओं का
आज कुछ इस तरह वो शरमाया

यूँ तो बे-चैनियाँ मुक़द्दर थीं
तेरी क़ुर्बत ने और तड़पाया

क्या क़यामत वो कम-निगाही थी
हर हक़ीक़त को जिस ने झुठलाया

क्या हुई वो दिलों की मासूमी
हुस्न रूठा न इश्क़ पछताया

हाए किस किस मक़ाम पर दिल को
उस उचटती नज़र ने भटकाया

ख़ुद-शनासी थी जुस्तुजू तेरी
तुझ को ढूँडा तो आप को पाया

'नक़्श' आँखों में आ गए आँसू
आज ऐसे में कौन याद आया