चेहरा-ए-ज़िंदगी निखर आया
जब कभी हम ने जाम छलकाया
शाम-ए-हिज्राँ भी इक क़यामत थी
आप आए तो मुझ को याद आया
रंग फीका पड़ा वफ़ाओं का
आज कुछ इस तरह वो शरमाया
यूँ तो बे-चैनियाँ मुक़द्दर थीं
तेरी क़ुर्बत ने और तड़पाया
क्या क़यामत वो कम-निगाही थी
हर हक़ीक़त को जिस ने झुठलाया
क्या हुई वो दिलों की मासूमी
हुस्न रूठा न इश्क़ पछताया
हाए किस किस मक़ाम पर दिल को
उस उचटती नज़र ने भटकाया
ख़ुद-शनासी थी जुस्तुजू तेरी
तुझ को ढूँडा तो आप को पाया
'नक़्श' आँखों में आ गए आँसू
आज ऐसे में कौन याद आया
ग़ज़ल
चेहरा-ए-ज़िंदगी निखर आया
महेश चंद्र नक़्श