चश्म-ओ-गेसू का कोई ज़िक्र न रुख़्सार की बात
बैठ कर कीजिए उन से दर-ओ-दीवार की बात
ये अदाएँ ये इशारे ये हसीं क़ौल-ओ-क़रार
कितने आदाब के पर्दे में है इंकार की बात
रात भर जिस की तमन्ना में जले हैं हम लोग
वो सहर शैख़ की नज़रों में है कुफ़्फ़ार की बात
बज़्म-ए-अग़्यार अगर हो तो बिछे जाते हैं
और करते हैं वो हम से रसन-ओ-दार की बात
मदह-ए-सय्याद बहर-हाल ज़रूरी तो नहीं
चुप रहो ये भी है अब जुरअत-ए-किरदार की बात
किस भरोसे पे करें इश्क़ का सौदा 'ख़ालिद'
वक़्त शायद है कि रहती नहीं तलवार की बात
ग़ज़ल
चश्म-ओ-गेसू का कोई ज़िक्र न रुख़्सार की बात
ख़ालिद यूसुफ़