चश्म-ए-तर है कोई सराब नहीं
दर्द-ए-दिल अब कोई अज़ाब नहीं
कैसे इस बात पर यक़ीं कर लूँ
तू हक़ीक़त है कोई ख़्वाब नहीं
मौसम-ए-गुल का ज़िक्र रहने दे
ये मिरी बात का जवाब नहीं
तू अगर ग़म से अजनबी है तो
हाल अपना भी अब ख़राब नहीं
मान लेता हूँ मैं नहीं मजनूँ
तेरा रुख़ भी तो माहताब नहीं
क्या करूँ हुस्न का तसव्वुर अब
तेरे चेहरे पे जब नक़ाब नहीं
देर पहचानने में पल भर की
ये कोई बाइस-ए-इज़्तिराब नहीं
उम्र गुज़री है माज़रत करते
ग़फ़लतें मेरी बे-हिसाब नहीं

ग़ज़ल
चश्म-ए-तर है कोई सराब नहीं
संदीप कोल नादिम