चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे
मौत इंसान को लाज़िम है सदा याद रहे
मेरा ख़ूँ है तिरे कूचे में बहा याद रहे
ये बहा वो नहीं जिस का न बहा याद रहे
कुश्ता-ए-ज़ुल्फ़ के मरक़द पे तू ऐ लैला-वश
बेद-ए-मजनूँ ही लगा ता-कि पता याद रहे
ख़ाकसारी है अजब वस्फ़ कि जूँ जूँ हो सिवा
हो सफ़ा और दिल-ए-अहल-ए-सफ़ा याद रहे
हो ये लब्बैक-ए-हरम या ये अज़ान-ए-मस्जिद
मय-कशो क़ुलक़ुल-ए-मीना की सदा याद रहे
याद उस वादा-फ़रामोश ने ग़ैरों से बदी
याद कुछ कम तो न थी और सिवा याद रहे
ख़त भी लिखते हैं तो लेते हैं ख़ताई काग़ज़
देखिए कब तक उन्हें मेरी ख़ता याद रहे
दो वरक़ में कफ़-ए-हसरत के दो आलम का है इल्म
सबक़-ए-इश्क़ अगर तुझ को दिला याद रहे
क़त्ल-ए-आशिक़ पे कमर बाँधी है ऐ दिल उस ने
पर ख़ुदा है कि उसे नाम मिरा याद रहे
ताएर-ए-क़िबला-नुमा बन के कहा दिल ने मुझे
कि तड़प कर यूँ ही मर जाएगा जा याद रहे
जब ये दीं-दार हैं दुनिया की नमाज़ें पढ़ते
काश उस वक़्त उन्हें नाम-ए-ख़ुदा याद रहे
हम पे सौ बार जफ़ा हो तो रखो एक न याद
भूल कर भी कभी होवे तो वफ़ा याद रहे
महव इतना भी न हो इश्क़-ए-बुताँ में ऐ 'ज़ौक़'
चाहिए बंदे को हर वक़्त ख़ुदा याद रहे
ग़ज़ल
चश्म-ए-क़ातिल हमें क्यूँकर न भला याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़