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चश्म-ए-पुर-नम अभी मरहून-ए-असर हो न सकी | शाही शायरी
chashm-e-pur-nam abhi marhun-e-asar ho na saki

ग़ज़ल

चश्म-ए-पुर-नम अभी मरहून-ए-असर हो न सकी

हनीफ़ फ़ौक़

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चश्म-ए-पुर-नम अभी मरहून-ए-असर हो न सकी
ज़िंदगी ख़ाक-नशीनों की बसर हो न सकी

मय-कदे की वही मानूस फ़ज़ा और दिल-ए-ज़ार
एक भी रात ब-अंदाज़-ए-दिगर हो न सकी

ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-दौराँ की गुज़रगाहों से
गुज़रे कुछ ऐसे कि ख़ुद अपनी ख़बर हो न सकी

धुँदले धुँदले नज़र आते तो हैं क़दमों के निशाँ
गरचे पुर-नूर अभी राहगुज़र हो न सकी

ज़िंदगी जाम-ब-कफ़ आई भी महफ़िल में मगर
शब के मतवालों को तौफ़ीक़-ए-नज़र हो न सकी

कैसे ताबिंदा सितारों का लहू जलता है
शब-ए-तारीक जो उनवान-ए-सहर हो न सकी