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चश्म-ए-नम पहले शफ़क़ बन के सँवरना चाहे | शाही शायरी
chashm-e-nam pahle shafaq ban ke sanwarna chahe

ग़ज़ल

चश्म-ए-नम पहले शफ़क़ बन के सँवरना चाहे

सलमा शाहीन

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चश्म-ए-नम पहले शफ़क़ बन के सँवरना चाहे
और फिर रेत के दामन पे बिखरना चाहे

अजब इंसान है वो सेहर ये करना चाहे
आँख से देखो अगर दिल में उतरना चाहे

कुछ अजब उस से तअल्लुक़ है कि उस की हर बात
मौज-ए-ख़ूँ बन के मिरे सर से गुज़रना चाहे

सारा दिन धूप के सहरा में रहे सरगर्दां
शाम होते ही समुंदर में उतरना चाहे

ख़ुद रहे ता'न-ओ-मलामत का हदफ़ उस पे कभी
अपनी रुस्वाई का इल्ज़ाम न धरना चाहे

आइना जाँ का मुकद्दर सही लेकिन 'शाहीन'
दिल की तस्वीर तो आँखों में उतरना चाहे