चश्म-ए-हैरत को तअल्लुक़ की फ़ज़ा तक ले गया
कोई ख़्वाबों से मुझे दश्त-ए-बला तक ले गया
टूटती परछाइयों के शहर में तन्हा हूँ अब
हादसों का सिलसिला ग़म-आश्ना तक ले गया
धूप दीवारों पे चढ़ कर देखती ही रह गई
कौन सूरज को अंधेरों की गुफा तक ले गया
उम्र भर मिलने नहीं देती हैं अब तो रंजिशें
वक़्त हम से रूठ जाने की अदा तक ले गया
इस क़दर गहरी उदासी का सबब खुलता नहीं
जैसे होंटों से कोई हर्फ़-ए-दुआ तक ले गया
जाने किस उम्मीद पर इक आरज़ू का सिलसिला
मुझ से पैहम दूर होती इक सदा तक ले गया
ख़ाक में मिलते हुए बर्ग-ए-ख़िज़ाँ से पूछिए
कौन शाख़ों से उसे ऊँची हवा तक ले गया
![chashm-e-hairat ko talluq ki faza tak le gaya](/images/pic02.jpg)
ग़ज़ल
चश्म-ए-हैरत को तअल्लुक़ की फ़ज़ा तक ले गया
फ़सीह अकमल