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चश्म-ए-हैराँ को तमाशा-ए-दिगर पर रक्खा | शाही शायरी
chashm-e-hairan ko tamasha-e-digar par rakkha

ग़ज़ल

चश्म-ए-हैराँ को तमाशा-ए-दिगर पर रक्खा

जमाल एहसानी

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चश्म-ए-हैराँ को तमाशा-ए-दिगर पर रक्खा
और इस दिल को तिरी ख़ैर-ख़बर पर रक्खा

ऐन-मुमकिन है चराग़ों को वो ख़ातिर में न लाए
घर का घर हम ने उठा राहगुज़र पर रक्खा

बोझ से झुकने लगी शाख़ तो जा कर हम ने
आशियाने को किसी और शजर पर रक्खा

चमन-ए-दहर में इस तरह बसर की हम ने
साया-ए-गुल का भी एहसान न सर पर रक्खा

उस की आवाज़ पे बाहर निकल आया हूँ 'जमाल'
सारा असबाब-ए-सफ़र रह गया घर पर रक्खा