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चश्म-ए-गर्दूं फिर तमाज़त अपनी बरसाने लगी | शाही शायरी
chashm-e-gardun phir tamazat apni barsane lagi

ग़ज़ल

चश्म-ए-गर्दूं फिर तमाज़त अपनी बरसाने लगी

शोएब निज़ाम

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चश्म-ए-गर्दूं फिर तमाज़त अपनी बरसाने लगी
फिर ज़मीं मिन्नत-कश-ए-दरिया नज़र आने लगी

फिर जहान-ए-ताज़ा की हम जुस्तुजू करने लगे
फिर ख़राबे में तबीअ'त अपनी घबराने लगी

क्या मयस्सर आ गया मुझ को हवा का इल्तिफ़ात
अब मिरी आवाज़ शायद दूर तक जाने लगी

मंज़र-ए-ख़ुश-रंग से उकता के आख़िर ये नज़र
अपनी आवारा-मिज़ाजी की सज़ा पाने लगी

फिर किसी के दर पे ख़ुश्बू दे रही है दस्तकें
फिर कोई आहट मिरे कानों से टकराने लगी