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चश्म-ए-बीना! तिरे बाज़ार का मेआर हैं हम | शाही शायरी
chashm-e-bina! tere bazar ka mear hain hum

ग़ज़ल

चश्म-ए-बीना! तिरे बाज़ार का मेआर हैं हम

तारिक़ क़मर

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चश्म-ए-बीना! तिरे बाज़ार का मेआर हैं हम
देख टूटे हुए ख़्वाबों के ख़रीदार हैं हम

कैसे तारीख़ फ़रामोश करेगी हम को
तेग़ पर ख़ून से लिक्खा हुआ इंकार हैं हम

तुम जो कहते हो कि बाक़ी न रहे अहल-ए-दिल
ज़ख़्म बेचोगे चलो बेचो ख़रीदार हैं हम

यूँही लहरों से कभी खेलने लग जाते हैं
एक ग़र्क़ाब हुई नाव की पतवार हैं हम

वो भी ख़ुश है कि अँधेरे में पड़े रहते हैं
हम भी ख़ुश हैं कि उजाले के तरफ़-दार हैं हम

इंकिसारी ने अजब शान अता की हम को
इस क़दर ख़म हुए लगने लगा तलवार हैं हम

एक मुद्दत से ये मंज़र नहीं बदला 'तारिक़'
वक़्त उस पार है ठहरा हुआ इस पार हैं हम