EN اردو
चर्चे हर इक ज़बान पे हुस्न-ए-बुताँ के हैं | शाही शायरी
charche har ek zaban pe husn-e-butan ke hain

ग़ज़ल

चर्चे हर इक ज़बान पे हुस्न-ए-बुताँ के हैं

शाग़िल क़ादरी

;

चर्चे हर इक ज़बान पे हुस्न-ए-बुताँ के हैं
उनवाँ जुदा जुदा इसी इक दास्ताँ के हैं

फूलों के क़हक़हे हों कि फ़रियाद-ए-अंदलीब
दोनों ही सोज़-ओ-साज़ इसी गुलिस्ताँ के हैं

रहज़न अगर है घात में क्या शिकवा हम-सफ़ीर
ख़ुद अपने राहबर ही अदू कारवाँ के हैं

क्या ख़ाक होंगे इश्क़ की मंज़िल से आश्ना
कुश्ता हर इक क़दम पे जो सूद-ओ-ज़ियाँ के हैं

झुक जाए वालिहाना जहाँ ख़ुद जबीन-ए-शौक़
हम 'क़ादरी' तलाश में उस आस्ताँ के हैं