चर्चे हर इक ज़बान पे हुस्न-ए-बुताँ के हैं
उनवाँ जुदा जुदा इसी इक दास्ताँ के हैं
फूलों के क़हक़हे हों कि फ़रियाद-ए-अंदलीब
दोनों ही सोज़-ओ-साज़ इसी गुलिस्ताँ के हैं
रहज़न अगर है घात में क्या शिकवा हम-सफ़ीर
ख़ुद अपने राहबर ही अदू कारवाँ के हैं
क्या ख़ाक होंगे इश्क़ की मंज़िल से आश्ना
कुश्ता हर इक क़दम पे जो सूद-ओ-ज़ियाँ के हैं
झुक जाए वालिहाना जहाँ ख़ुद जबीन-ए-शौक़
हम 'क़ादरी' तलाश में उस आस्ताँ के हैं
ग़ज़ल
चर्चे हर इक ज़बान पे हुस्न-ए-बुताँ के हैं
शाग़िल क़ादरी