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चराग़ ज़ब्त-ए-तमन्ना से जल न जाएँ कहीं | शाही शायरी
charagh zabt-e-tamanna se jal na jaen kahin

ग़ज़ल

चराग़ ज़ब्त-ए-तमन्ना से जल न जाएँ कहीं

ख़ालिद यूसुफ़

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चराग़ ज़ब्त-ए-तमन्ना से जल न जाएँ कहीं
गुलों के अश्क सितारों में ढल न जाएँ कहीं

इसी लिए हैं गराँ-पा कि हम जो तेज़ चले
दयार-ए-यार से आगे निकल न जाएँ कहीं

बिछा रहे हैं मिरी राह में जो अंगारे
वो हाथ फूल हैं डरता हूँ जल न जाएँ कहीं

क़दम क़दम पे बिछाओ बिसात-ए-कैफ़-ओ-निशात
शराब और पिलाओ सँभल न जाएँ कहीं

हर एक गाम पे अश्कों के गर्म चश्मे हैं
दिलों के संग सँभालो पिघल न जाएँ कहीं

चले चलो कि भरोसा नहीं हवाओं का
अभी हैं साथ अभी रुख़ बदल न जाएँ कहीं

दर-ए-हबीब हो या कूचा-ए-अदू 'ख़ालिद'
ये आरज़ू है कि अब सर के बल न जाएँ कहीं