चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
ये मेरी क़ब्र पे मंज़र नया दिखा भी दिया
ये छेड़ क्या है ये क्या मुझ से दिल-लगी है कोई
जगाया नींद से जागा तो फिर सुला भी दिया
उधर था लुत्फ़-ओ-करम उन का इस तरफ़ था इताब
चराग़ उमीद का रौशन किया बुझा भी दिया
ये शोख़ियाँ नई देखीं तुम्हारी चितवन में
कि पर्दा रुख़ पे लिया और फिर उठा भी दिया
उधर लगाव इधर बरहमी के हैं आसार
मुझे फँसा भी लिया और फिर छुड़ा भी दिया
निकल गए मिरी आँखों से सैकड़ों आँसू
ख़ज़ाना जम्अ किया और फिर लुटा भी दिया
नया है हुस्न के बाज़ार का उतार-चढ़ाव
चढ़ाया सर पे निगाहों से फिर गिरा भी दिया
ज़रा तो पास-ए-तलब आशिक़ों का तुम करते
बुलाया पास भी फिर पास से हटा भी दिया
ये उन का खेल तो देखो कि एक काग़ज़ पर
लिखा भी नाम मिरा और फिर मिटा भी दिया
अगरचे राह-ए-मोहब्बत है तंग-ओ-तार मगर
इसी के साथ हमें अक़्ल का दिया भी दिया
बशीर सींग कटा कर मिले हैं बछड़ों में
बने जवान बुढ़ापे का ग़म भुला भी दिया
ग़ज़ल
चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
बशीरुद्दीन अहमद देहलवी