चराग़ की ओट में रुका है जो इक हयूला सा यासमीं का
ये रंग है और आसमाँ का ये फूल है और ही ज़मीं का
मिरे इरादे पे मुनहसिर है ये धूप और छाँव का ठहरना
कि एक साअत किसी गुमाँ की है एक लम्हा किसी यक़ीं का
मुझे यक़ीं है ज़मीन अपने मदार पर घूमती रहेगी
कि अब सितारों के पानियों में भी अक्स है ख़ाक के मकीं का
मैं जिन के हम-राह चल रहा हूँ वो सब इसी ख़ाक की नुमू हैं
मगर जो मेरे वजूद में है वो ख़्वाब है और ही कहीं का
जो मेरे ख़ूँ में भड़क रही है वो मिशअल-ए-ख़्वाब है कहाँ की
जो मेरी आँखों में बस गया है वो चाँद है कौन सी जबीं का
मैं रात के घाट पर उतर कर किसी सितारे में डूब जाता
मगर मिरे रू-ब-रू धरा है ये आइना सुब्ह-ए-नीलमीं का
सो अब ये जीवन की नाव शायद किसी किनारे से जा लगेगी
कि अब तो पानी की सतह पर भी गुमान होने लगा ज़मीं का
ग़ज़ल
चराग़ की ओट में रुका है जो इक हयूला सा यासमीं का
ग़ुलाम हुसैन साजिद