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चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में | शाही शायरी
charagh-e-subh jala koi na-shanasi mein

ग़ज़ल

चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में

अब्बास ताबिश

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चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में
इक और दिन का इज़ाफ़ा हुआ उदासी में

तिरी नज़र के इशारों पे आइना न हुआ
ये दिल की ताक़ बहुत था सुख़न-शनासी में

दिखाई दे न मुझे दहशत-ए-जमाल के साथ
नशात-ए-इश्क़ न खो जाए बद-हवासी में

जुनूँ रहीन-ए-क़बा हो तो इस से पूछूँ भी
के कितना लुत्फ़ मयस्सर था बे-लिबासी में

न रोज़-ए-अब्र-ए-सियह था न माहताब की रात
गिलास टूट गया कैसी बद-हवासी में