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चराग़-ए-शौक़ जला रात के असर से निकल | शाही शायरी
charagh-e-shauq jala raat ke asar se nikal

ग़ज़ल

चराग़-ए-शौक़ जला रात के असर से निकल

ख़ावर एजाज़

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चराग़-ए-शौक़ जला रात के असर से निकल
सफ़र न रोक तिलिस्मात-ए-रहगुज़र से निकल

कभी तो दस्त-ए-हिनाई से लिख विसाल की रुत
कभी तो शीशा-ए-जाँ टूटने के डर से निकल

जवाज़ ढूँड न अपनी सदा बिखरने का
हयात मोहर-ब-लब दस्त-ए-चारा-गर से निकल

ज़रा सी वुसअ'त-ए-इदराक में न गुम हो जा
इस इम्तिहाँ से गुज़र हैरत-ए-ख़बर से निकल

तिरे ख़याल में हूँ शहर-ए-रफ़्तगाँ तू भी
किसी खंडर से उभर अक्स-ए-बाम-ओ-दर से निकल

ज़कात-ए-ख़्वाब में दे दी हैं मैं ने आँखें भी
अब ऐ जहान-ए-दिगर हीता-ए-नज़र से निकल

निगाह-ए-ज़र्द में उग सब्ज़ ख़्वाब की कोंपल
गुलाब-ए-शाख़ फिर उजड़े हुए शजर से निकल

बंधे हैं शाम सुतूनों से सुब्ह के तारे
जमाल-ए-यार किसी नक़्श-ए-मोतबर से निकल

फ़सील-ए-शहर पे अक्स-ए-शब-ए-तअस्सुफ़ है
नजात-ए-ग़म की किरन खेमा-ए-सहर से निकल