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चराग़-ए-इश्क़ जलता है हमारे क़ल्ब-ए-वीराँ में | शाही शायरी
charagh-e-ishq jalta hai hamare qalb-e-viran mein

ग़ज़ल

चराग़-ए-इश्क़ जलता है हमारे क़ल्ब-ए-वीराँ में

जलील इलाहाबादी

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चराग़-ए-इश्क़ जलता है हमारे क़ल्ब-ए-वीराँ में
चले आओ अभी तक रौशनी है इस बयाबाँ में

नहीं ऐ दोस्त इन अश्कों का कोई देखने वाला
दरख़्शाँ हैं जो अंजुम की तरह चाक-ए-गरेबाँ में

कुछ ऐसे ग़म भी होते हैं जो अश्कों में नहीं ढलते
शरारे बन के लेकिन रक़्स करते हैं रग-ए-जाँ में

बनाना था जिसे मंसूर उसे दार-ओ-रसन बख़्शा
उसे यूसुफ़ बनाते हैं जिसे रखते हैं ज़िंदाँ में

वो कश्ती आज डूबा चाहती है पास साहिल के
सलामत एक मुद्दत तक रही जो बहर-ए-तूफ़ाँ में

ज़माने में फ़क़त एक बेबसी का साथ होता है
कोई अपना नहीं होता कभी हाल-ए-परेशाँ में