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चराग़-ए-दीद जलाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं | शाही शायरी
charagh-e-did jalao ki KHwab larzan hain

ग़ज़ल

चराग़-ए-दीद जलाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

साजिदा ज़ैदी

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चराग़-ए-दीद जलाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं
धुएँ से शो'ला जगाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

कोई ग़ज़ल कोई नग़्मा कोई बहार का गीत
फ़ज़ा-ए-ग़म को सुनाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

हयात जब्र-ए-मुसलसल सही मगर उस वक़्त
रबाब-ओ-साज़ उठाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

ब-नाम-ए-तिश्नगी लाओ कोई दहकता अयाग़
ये सर्द रात जलाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

करम का मेहर-ओ-मोहब्बत का ज़िक्र क्या अब तो
सितम के नाज़ उठाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

उफ़ुक़ पे ज़ीस्त के हंगाम-ए-आरज़ू-ए-विसाल
का माहताब सजाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं

ये पुल-सिरात-ए-तमन्ना की सख़्त राहें हैं
क़दम सँभल के उठाओ कि ख़्वाब लर्ज़ां हैं