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चराग़ दुनिया के सारे बुझा के चलता हूँ | शाही शायरी
charagh duniya ke sare bujha ke chalta hun

ग़ज़ल

चराग़ दुनिया के सारे बुझा के चलता हूँ

ख़लील मामून

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चराग़ दुनिया के सारे बुझा के चलता हूँ
अँधेरी रात में इक दिल जला के चलता हूँ

दिखाई देता है दरवाज़ा-ए-फ़ना मुझ को
मैं सब हिजाब नज़र से उठा के चलता हूँ

दिखाई देते हैं सारे ख़ज़ाने धरती के
मैं सारे संग रहों के हटा के चलता हूँ

अलम में सर मेरा कोई उठाएगा क्यूँ-कर
मैं ख़्वान-ए-अज़्म में सर को सजा के चलता हूँ

मुझे पहुँचना है बस अपने-आप की हद तक
मैं अपनी ज़ात को मंज़िल बना के चलता हूँ