चराग़ अपनी थकन की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है कि अब ख़्वाब तक दिखाई न दे
मसर्रतों में भी जागे गुनाह का एहसास
मिरे वजूद को इतनी भी पारसाई न दे
बहुत सताते हैं रिश्ते जो टूट जाते हैं
ख़ुदा किसी को भी तौफ़ीक़-ए-आश्नाई न दे
मैं सारी उम्र अँधेरों में काट सकता हूँ
मिरे दियों को मगर रौशनी पराई न दे
अगर यही तिरी दुनिया का हाल है मालिक
तो मेरी क़ैद भली है मुझे रिहाई न दे
दुआ ये माँगी है सहमे हुए मुअर्रिख़ ने
कि अब क़लम को ख़ुदा सुर्ख़ रौशनाई न दे

ग़ज़ल
चराग़ अपनी थकन की कोई सफ़ाई न दे
मेराज फ़ैज़ाबादी