चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
नोक-ए-ख़ामा पर ब-रंग-ए-रौशनाई क्या रहूँ
कोई शायद आ ही जाए रास्ता तकता रहूँ
एक संग-ए-मील बन जाऊँ ब-चशम-ए-वा रहूँ
खाई से सब को बचा लूँ मैं न कुचला जाऊँ तो
बन के ख़तरे का निशाँ रस्ते में इस्तादा रहूँ
दश्त-ए-तन्हाई में यादों के दरिंदों से डरूँ
बच-बचा के भीड़ में आऊँ तो फिर तन्हा रहूँ
ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
मुझ को ये ज़ेबा नहीं अब ज़ात में सिमटा रहूँ
अपनी आवाज़ें ही जब बार-ए-समाअत हैं 'ज़हीर'
चीख़ते गुम्बद में बेहतर है कि मैं गूँगा रहूँ
ग़ज़ल
चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
ज़हीर सिद्दीक़ी