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चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे | शाही शायरी
chamke ga abhi mere KHayalat se aage

ग़ज़ल

चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे

ज़फ़र इक़बाल

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चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे
वो नक़्श कि था दाग़-ए-मुलाक़ात से आगे

लगता है कि मुश्किल है अभी दिन का निकलना
है रात कोई और भी इस रात से आगे

इस वहम से वापस नहीं पल्टा हूँ कि होगा
कुछ और भी इस ख़्वाब-ए-तिलिस्मात से आगे

आराम से पीछे वो हटा देता है मुझ को
बढ़ता हूँ अगर उस की हिदायात से आगे

दौरान-ए-सफ़र करता हूँ आराम भी लेकिन
होता हूँ ठहरने के मक़ामात से आगे

उक़्दा इसी ख़ातिर कोई होता ही नहीं हल
हैं सारे सवालात जवाबात से आगे

आगाह किया है तो हुए और भी ग़ाफ़िल
वाक़िफ़ जो नहीं थे मिरे हालात से आगे

हो सकता है क्या कोई भला उन के बराबर
रहते हैं जो ख़ुद अपने बयानात से आगे

इतना भी बहुत है जो 'ज़फ़र' क़हत-ए-नवा में
निकली है कोई बात मिरी बात से आगे