चमन में वो फ़रामोशी का मौसम था मैं ख़ुद को भी
ज़मीं पर बर्ग-ए-आवारा नज़र आया तो याद आया
अभी इक निस्बत-ए-दार-ओ-रसन का क़र्ज़ बाक़ी है
फ़राज़ जाह ओ मंसब से उतर आया तो याद आया
भुलाया गर्दिश-ए-अय्याम ने दस्त-ए-पिदर यूँ तो
मगर जब मोड़ कोई पुर-ख़तर आया तो याद आया
किसी की आँख का तारा हुआ करते थे हम भी तो
अचानक शाम का तारा नज़र आया तो याद आया
भरा बाज़ार था कुछ जिंस-ए-जाँ के दाम लग जाते
शहादत-गाह-ए-दुनिया से गुज़र आया तो याद आया
ग़ज़ल
चमन में वो फ़रामोशी का मौसम था मैं ख़ुद को भी
अली इफ़्तिख़ार ज़ाफ़री