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चमन में थे जो चमन ही की दास्तान सुनते | शाही शायरी
chaman mein the jo chaman hi ki dastan sunte

ग़ज़ल

चमन में थे जो चमन ही की दास्तान सुनते

मुईन अहसन जज़्बी

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चमन में थे जो चमन ही की दास्तान सुनते
कोई नवा कोई नग़्मा कोई फ़ुग़ाँ सुनते

क़दम न छोड़ते राहों को ता-बा-मंज़िल-ए-शौक़
हमारी बात जो ये अहल-ए-कारवाँ सुनते

तिरे क़लम से तो गुलज़ार-ए-बे-नवा का क़फ़स
तिरी ज़बाँ से भी कुछ हाल-ए-बे-ज़बाँ सुनते

हमारे दर्द का तूफ़ाँ कहाँ कहाँ न उठा
ये शोर आप जहाँ चाहते वहाँ सुनते

इक उम्र अपनी भी गुज़री है ऐ चमन वालो
गुलों के कुंज में अँदेशा-ए-ख़िज़ाँ सुनते

किसी का रंज किसी का अलम किसी का मलाल
अब और क्या था जो हम ज़ेर-ए-आसमाँ सुनते

गुलों से बच के चले बुलबुलों से कतराए
वो मेरा क़िस्सा-ए-ख़ूनीं कहाँ कहाँ सुनते

कुछ इस में अपना भी सोज़-ए-बयाँ था ऐ 'जज़्बी'
वगर्ना लोग कब अफ़साना-ए-जहाँ सुनते